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आचार्य श्रीराम शर्मा >> बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4209
आईएसबीएन :00000

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बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

Bade Aadmi Nahin Mahamanav Bane a hindi book by Sriram Sharma Acharya - बड़े आदमी नहीं महामानव बनें - श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आकांक्षाएँ उचित और सोद्देश्य हों

न जाने किस कारण लोगों के मन में यह भ्रम पैदा हो गया है कि ईमानदारी और नीतिनिष्ठा अपनाकर घाटा और नुकसान ही हाथ लगता है। संभवतः इसका कारण यह है कि लोग बेईमानी अपनाकर छल-बल से, धूर्तता और चालाकी द्वारा जल्दी-जल्दी धन बटोरते देखे जाते हैं। तेजी से बढ़ती संपन्नता देखकर देखने वालों के मन में भी वैसा ही वैभव अर्जित करने की आकांक्षा उत्पन्न होती हैं। वे देखते हैं कि वैभव संपन्न लोगों का रौब और दबदबा रहता है। किंतु ऐसा सोचते समय वे यह भूल जाते हैं कि बेईमानी और चालाकी से अर्जित किए गए वैभव का रौब और दबदबा बालू की दीवार ही होता है, जो थोड़ी-सी हवा बहने पर ढह जाता है तथा यह भी कि वह प्रतिष्ठा दिखावा, छलावा मात्र होती है क्योंकि स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से कतिपय लोग उनके मुँह पर उनकी प्रशंसा अवश्य कर देते हैं, परंतु हृदय में उनके भी आदर भाव नहीं होता। इसके विपरीत ईमानदारी और मेहनत से काम करने वाले, नैतिक मूल्यों को अपनाकर नीतिनिष्ठ जीवन व्यतीत करने वाले भले ही धीमीगति से प्रगति करते हों परंतु उनकी प्रगति ठोस होती है तथा उनका सुयश देश काल की सीमाओं को लांघकर विश्वव्यापी और अमर हो जाता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शॉ को कौन नहीं जानता। उन्होंने अपना जीवन प्रापर्टी डीलर के यहां उसके कार्यालय में क्लर्क की नौकरी से प्रारंभ किया था।

प्रापर्टी डीलर और कई काम करता था तथा मकानों को किराए पर उठाना, बीमा एजेंसी चलाना आदि। उसके यहाँ शॉ का काम था मकानों तथा अन्य स्थानों के किराए वसूल करना, बीमे की किश्तें उगाहना, टैक्सों की वसूली और अदायगी कराना। ये काम करते समय उन्हें बड़ी-बड़ी रकमों का लेन-देन करना पड़ता था और बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्तियों से संपर्क करना पड़ता था। स्वभाव से बर्नार्ड शॉ इतने विनम्र थे कि किसी के साथ सख्ती या जोर-जबर्दस्ती नहीं कर पाते थे और लोग थे कि उनकी परवाह ही नहीं करते।

इन कारणों से वे अपने काम में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पा रहे थे। यद्यपि उनके मालिक को इससे कोई शिकायत नहीं थी, परंतु स्वयं बर्नार्ड शॉ को अपने काम से संतोष नहीं था। एक दिन उन्होंने अपने मालिक को सूचित करते हुए पत्र लिखा, जिसे त्याग पत्र की ही संज्ञा दी जा सकती है, कि महोदय मैं आपको सूचित कर देना चाहता हूँ कि इस महीने के बाद मैं आपके यहाँ काम नहीं कर सकूंगा। कारण यह है कि जितना वेतन आप मुझे देते हैं मैं उतना काम कर नहीं पाता।’’

मालिक तो उनके काम से बहुत संतुष्ट था। वह उनके स्वभाव से बहुत प्रसन्न भी था कि उनके बारे में कभी किसी देनदार ने कोई शिकायत नहीं की। उसने बर्नार्ड शॉ को बहुत समझाया परंतु शॉ को यह उचित लग ही नहीं रहा था कि जितना वेतन वे लेते हैं इतना काम भी वे नहीं कर पाते।

अमेरिका के विख्यात लेखक हेनरी मिलर ने भी ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत किया था। उन दिनों मिलर ने साहित्य सेवा के क्षेत्र में नया-नया ही प्रवेश किया था। सन् 1919 में भारत के विश्वविख्यात इंजीनियर श्री विश्वेश्वरैया अमेरिका गए। वहाँ उन्होंने अपनी पत्रिका के लिए मिलर से एक लेख लिखने को कहा। पारिश्रमिक तय हुआ दस डॉलर। मिलर ने दूसरे दिन लेख तैयार कर दे देने की बात कही। जब वह लेख तैयार कर लाए तो विश्वेश्वरैया उसे पढ़कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने लेखक को दो डालर और अधिक देते हुए कहा, लेख बहुत अच्छा बन पड़ा है। मैंने जिस स्तर की आशा की थी लेख उससे अच्छा लिखा गया है अतः इसका यही मूल्य उचित है।

मिलर ने इस पेशकश से इनकार करते हुए कहा, ‘‘लेकिन श्रीमानजी मैंने तो अच्छे से अच्छे लेख का ही पारिश्रमिक ठहराया था। यह अधिक है और अपने श्रम से अधिक मूल्य लेना नैतिकता के विरुद्ध है।’’

श्रम का उचित मूल्य प्राप्त कर उसमें संतोष करना व्यक्ति को नीतिनिष्ठ तो बनाता ही है परिश्रमी भी बनाता है, क्योंकि तब किन्हीं की विवशताओं या परिस्थितियों का लाभ उठाने की बात दृष्टि में नहीं रहती। यह नियम निष्ठा अपना लेने पर व्यक्ति का पुरुषार्थ प्रखर होता जाता है। विख्यात विचारक लेखक ऐकिल हॉफर के पिता की जब मृत्यु हुई तो उनकी आयु मात्र 18 वर्ष थी। पिता ने इतना लाड़ प्यार दिया था कि उन्होंने उपार्जन के लिए क्या करना चाहिए, इसका कोई अनुभव प्राप्त नहीं किया था। परंतु उन्होंने हॉफर के मन में परिश्रम की रोटी ही खाने की बात बिठा दी थी। सो वे कहीं मेहनत-मजदूरी कर ही अपना जीवन यापन करना चाहते थे और क्षेत्र में अनुभव की दृष्टि से वे एकदम कोरे थे।

पिता की मृत्यु के बाद वे अनाथ, निराश्रित और बेकार हो गए। यहाँ-वहाँ काम प्राप्त करने के लिए भटकने लगे। भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं। एक होटल के सामने इस विचार से खड़े ही थे कि उसके मालिक से काम देने के लिए निवेदन कर सकें पर मालिक ग्राहकों में व्यस्त था अतः वह हॉफर की ओर बीच-बीच में एकाध दृष्टि से देख लेता था बहुत देर से खड़े देखकर उसने अनुमान लगाया कि यह शायद कोई भिखारी है और भूखा भी है। होटल मालिक ने उन्हें बुलाकर पूछा, भूख लगी है बेटे।

भूख तो लगी है, युवक ने निस्संकोच भाव से कहा। होटल मालिक ने बिना कुछ कहे एक प्लेट में खाना रखा और हॉफर की ओर बढ़ाकर कहा, लो खालो।’’

‘परंतु मैं ऐसे नहीं खाऊँगा।’
‘तो कैसे खाओगे ?’ होटल मालिक ने विस्मित होकर पूछा।
‘मैं भूखा तो हूँ, परंतु काम करके ही रोटी खाना चाहता हूँ। मुफ्त में नहीं, हॉफर ने कहा, मालिक उनकी यह बात सुनकर बड़ा प्रभावित हुआ और श्रम के प्रति निष्ठा तथा स्वाभिमान को समझते हुए अपने यहाँ बर्तन साफ करने का काम लगा दिया। इसी श्रमशीलता के बल पर हॉफर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए ख्यातिलब्ध लेखक बन सके।

उन्हीं दिनों हाफर ने इतनी अधिक मेहनत और लगन से काम करना शुरू किया कि मालिक को लगा वह दो व्यक्तियों के बराबर काम कर रहे हैं। मालिक ने उनके वेतन में कुछ बढ़ोत्तरी करना चाहा और कहा कि, मैं तुम्हारे काम से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जी जान से मेहनत करते हो और अपने काम को भी अच्छी तरह समझते हो। इसलिए मैं तुम्हारा वेतन बढ़ा रहा हूँ।’’
हॉफर ने कहा, यदि मेरे अन्य सभी साथियों का वेतन बढ़ाया जा रहा है तो ही मेरा भी वेतन बढ़ाइए। अन्यथा काम तो मुझे मेहनत और लगन से ही करना चाहिए। बताइए क्या आप मुझ पर कामचोरी की आशा करते हैं।’’

मालिक हॉफर की यह बात सुनकर दंग रह गया। उसने कहा, मैंने आज तक तुम जैसा लड़का नहीं देखा था। तुम तो मेरे बेटे से भी अधिक मेरी दुकान की चिंता करते हो। कुछ पढ़े लिखे हो ?’’
हॉफर ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के संबंध में बताया तो मालिक ने उनकी श्रमशीलता को सम्मानित करते हुए उनके पदोन्नति कर दी और उन पर दूसरी बड़ी जिम्मेदारियाँ सौंप दीं।

ईमानदारी और श्रमशीलता का यह भी अर्थ है कि अपने श्रम के उचित मूल्य से अधिक की आकांक्षा अपेक्षा न की जाए। यह निष्ठा यदि विकसित कर ली जाए तो व्यक्ति प्रगति के उच्च सोपान पर चढ़ता चला जाता है और जो लोग बेईमानी, कामचोरी, दूसरों की मजबूरी से ही लाभ उठाने की बात सोचते हैं, वे आर्थिक दृष्टि से थोड़े बहुत संपन्न भले ही बन जाएँ, इससे अधिक और आगे प्रगति नहीं कर सकते।

मनुष्य के उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों पर निष्ठा की परख ऐसे अवसरों पर होती है जब स्वार्थ लोभ और मोह की परिस्थितियाँ प्रस्तुत होती हैं। सिद्धांतों एवं आदर्शों की कोरी बातें करना एक बात है पर उनका पालन करना उतना ही कठिन और एक सर्वथा भिन्न बात है। समाज में आदर्शों एवं सिद्धांतों की चर्चा करने वालों की कमी नहीं जो इन्हें भी वाक् विलास साधन और प्रतिष्ठा अर्जित करने का एक सरल माध्यम मात्र मानते हैं। पर ऐसे व्यक्ति स्वार्थ, मोह एवं लोभ का आकर्षण प्रस्तुत होते ही फिसलते-गिरते अपनी गरिमा गँवाते देखे जाते हैं। जिन्हें आदेशों के प्रति आस्था होती है वे इन क्षणिक आकर्षणों से प्रभावित नहीं होते और अपनी न्यायप्रियता, कर्त्त्वय निष्ठा का परिचय देते हैं। ऐसे व्यक्तियों से ही समाज और देश गौरवान्वित होता है। पतन पराभाव के प्रवाह में बहती भीड़ से अलग हटकर वे उल्टी दिशा में अपनी राह बनाते हैं। मणि मुक्तकों की भाँति चमकते तथा असंख्यों को प्रेरणा प्रकाश देते हैं। बड़े से बड़े प्रलोभन भी उन्हें डिगा नहीं पाते। समाज और राष्ट्र की सबसे मूल्यवान संपदा ऐसे ही व्यक्तित्व होते हैं जो कर्त्त्वयों का निर्वाह हर कीमत पर करते हैं।

जयपुर के एक परीक्षा केंद्र पर विजय कुमार नामक एक लड़का हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा दे रहा था। उसके पिता उसी स्कूल में अध्यापक हैं। संयोगवश पिता की ड्यूटी लड़के के कक्ष में पड़ी। यह जानकर कि इन्विजिलेटर के रूप में पिताजी नियुक्त हैं, विजय कुमार ने अवसर का लाभ उठाना चाहा। बिना किसी भय के उसने पुस्तक निकाली और उसे देखकर कापी पर प्रश्नों का हल लिखने लगा। पिता की दृष्टि अचानक अपने लड़के पर पड़ी उन्होंने तुरंत लड़के से कापी ले ली और नकल करने के आरोप का नोट लगा दिया। ड्यूटी पर नियुक्त साथ के एक अन्य मित्र ने लड़के का पक्ष लेना चाहा पर उन्होंने कापी नहीं लौटायी और यह कहते हुए कापी जमा कर ली कि मुझे कर्त्तव्य पालन पुत्र से भी अधिक प्रिय है। बोर्ड ने उस विद्यार्थी को दो वर्षों के लिए परीक्षा में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।



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